कश्मीर में बच्चे और उनके शिक्षक पढ़ाई की खातिर जुगत भिड़ा रहे हैं?

कश्मीर में पिछले 10 सालों में खराब हालात की वजह से तीन साल से ज़्यादा समय के लिए स्कूल बंद रह चुके हैं और इनमें छुट्टियां शामिल नहीं हैं






भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद-370, जो जम्मू-कश्मीर को भारत के संविधान में एक विशेष स्थिति देता था, हटे तीन महीने हो गए हैं. बावजूद इसके कि अब कश्मीर घाटी के ज़्यादातर इलाकों से कर्फ़्यू जैसे प्रतिबंध हटा दिये गए हैं, पूरी घाटी बंद पड़ी हुई है. कारोबार ठप हैं. सरकारी और निजी दफ्तर खुल तो रहे हैं लेकिन कर्मचारियों की हाज़िरी न के बराबर है. नाम के लिए संचार सेवाएं चालू हुई हैं लेकिन धरातल पर इसका कोई खास फर्क नहीं दिख रहा है.


अर्थव्यवस्था को तो ज़ाहिर है नुकसान है ही लेकिन ऐसे हालात में सबसे बड़ा नुकसान जो होता दिखाई दे रहा है वह शिक्षा का है.


जम्मू-कश्मीर सरकार ने बीते महीने ही सारे स्कूल, कॉलेज और विश्वविध्यालय खोल देने का ऐलान तो कर दिया था. लेकिन दिक्कत यह है कि अभी भी स्कूलों में सिर्फ अध्यापक ही पहुंच पा रहे हैं और बच्चों की हाज़िरी न के बराबर है.


'यह कहना गलत नहीं होगा कि श्रीनगर के एकाध निजी स्कूलों को छोड़कर अभी तक सारे स्कूल बंद ही पड़े हुए हैं. श्रीनगर के इन स्कूलों में भी हाज़िरी बहुत कम है' कश्मीर के बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन के एक अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं.


वजह यह है कि प्रतिबंध हटाये जाने के बाद कश्मीर में सिविल कर्फ़्यू जैसी स्थिति हो गयी है जिसमें ज़ाहिर है कि माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतरा रहे हैं.


'कहीं किसी ने स्कूल की गाड़ी पर पत्थर मार दिया तो क्या होगा. या कहीं स्कूल जाते हुए प्रदर्शन में फंस गए तो क्या करेंगे हमारे बच्चे' सत्याग्रह ने जितने भी लोगों से बात की, सबकी बस यही चिंता है.


दूसरी तरफ स्कूल प्रशासन भी इस मामले में कोई भी कदम उठाने से कतरा रहे हैं. 'हमारे अध्यापक तो रोज़ स्कूल आ रहे हैं, लेकिन बच्चों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेना किसी के बस की बात नहीं है' दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में स्थित एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल सत्याग्रह को बताते हैं.


सत्याग्रह ने कश्मीर घाटी के कई सरकारी स्कूलों के अध्यापकों से भी बात की और लगभग सबका यही कहना था कि वे भी किसी के माता-पिता हैं और जब वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे तो किसी और के बच्चे को खतरे में कैसे झोंक सकते हैं.


सामान्य समझ यह कहती है कि हालात चाहे कैसे भी हों बच्चों की पढ़ाई किसी भी कीमत पर रुकनी नहीं चाहिए. कश्मीर में भी लोग यह सब समझते हैं. बल्कि कश्मीर के लोगों से बेहतर यह बात कौन समझ सकता है. पिछले लगभग 10 सालों में खराब हालात के चलते कश्मीर में तीन साल से ज़्यादा समय के लिए स्कूल बंद रहे होंगे और छुट्टियां अलग.


कश्मीर के 'कम्यूनिटी स्कूल्स'


2008 में अमरनाथ यात्रा को लेकर हुए विवाद के चलते कश्मीर घाटी करीब छह महीने तक बंद रही थी. उस वक्त घाटी के अलग-अलग इलाकों के कुछ नौजवानों ने सामने आकर 'कम्यूनिटी स्कूल्स' का सिलसिला शुरू किया था. इसमें इलाक़े के कुछ पढ़े-लिखे नौजवान मिलकर अपने आस-पड़ोस के बच्चों को निशुल्क पढ़ाते थे. 2008, 2009, 2010 और 2016 में हुए प्रदर्शनों के दौरान ऐसे कम्यूनिटी स्कूलों में आस-पास के दर्जनों गांवों के बच्चे पढ़ा करते थे.


इस बार भी ये कम्यूनिटी स्कूल चल तो रहे हैं लेकिन इतने लंबे समय से संचार सेवाएं बंद होने के चलते इनका दायरा घट गया है. 'इस बार हर कोई चाहता है कि घर के पास ही बच्चे पढ़ने जाएं ताकि कोई घटना घटे तो उनसे संपर्क नहीं टूटे' अनंतनाग जिले के बिजबेहरा कस्बे में ऐसा ही एक स्कूल चला रही, अस्मत बशीर सत्याग्रह को बताती हैं.


अस्मत के साथ उनकी एक सहेली भी दिन भर में एक दर्जन से ज़्यादा बच्चों को यहां पढ़ाती हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि इन दोनों को ही स्कूल में सारे विषय पढ़ाने पड़ते हैं. अस्मत और उनकी सहेली, बाज़िला, बताती हैं कि चौथी-पांचवीं कक्षा तक तो वे संभाल लेती हैं लेकिन उसके बाद सारे विषय पढ़ाने में उन्हें काफी मुश्किल आती है.


श्रीनगर के सुलैमान टेंग इलाक़े में ऐसा ही एक स्कूल चला रही, इंशा मुश्ताक़ भी अस्मत और उनकी सहेली से इत्तेफाक रखती हैं, लेकिन साथ ही साथ वे यह भी कहती हैं कि इस वक़्त किसी बच्चे को मना भी नहीं कर सकते. इंशा का कहना है कि इंटरनेट बंद होना उनकी मुश्किलें दुगनी कर रहा है. 'अगर इंटरनेट चल रहा होता तो जहां कहीं कुछ संदेह होता उसको इंटरनेट पर देख के दूर कर लेते. लेकिन हमारे पास अब यह सुविधा भी नहीं है.'


लेकिन अस्मत, बाज़िला और इंशा जैसे नौजवान यह भी मानते हैं कि यह भी बच्चों के कुछ न पढ़ने से तो बेहतर है. 'वरना तो स्कूल बंद होने की वजह से दिन भर उल्टी-सीधी हरकतों में ही लगे रहेंगे ये बच्चे' दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले में ऐसा ही एक सेंटर चला रहे, बासित अहमद, कहते हैं.


लेकिन ऐसा नहीं है कि निजी और सरकारी स्कूल के सभी अध्यापक इस मुश्किल घड़ी में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. कश्मीर के कुलगाम जिले में स्थित 'आईशा एंड अली अकैडमी' जैसे नामी स्कूल की तरह तमाम दूसरे स्कूलों ने भी अपने अध्यापकों को अपने-अपने इलाक़े के बच्चों को पढ़ाने की हिदायत दी है.


ये अध्यापक कई बच्चों की नियमित कक्षाएं उनके घरों के आस-पास ही ले रहे हैं. 'लेकिन यह किसी को नहीं मालूम है कि यह क्लास स्कूल की तरफ से चलाई जा रही हैं, वरना कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन पर बैन लगा देंगे. और फिर स्कूल वाले भी अपनी सुरक्षा का सोचते हैं' स्कूल में पढ़ रहे एक बच्चे के पिता सत्याग्रह को बताते हैं.


वे कहते हैं कि उनका बच्चा तड़के छह बजे एक अध्यापक के घर जाता है और नौ बजे तक उसकी वापसी भी हो जाती है, 'जहां पढ़ाई ज़रूरी है वहीं यह भी देखना है कि लोग यह न सोचने लग जाएं कि हम किसी तरह से हड़ताल तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.'


यह काम लेकिन सिर्फ निजी स्कूल वाले कर पा रहे हैं. 'उसकी वजह यह है कि निजी स्कूलों में ज्यादातर अध्यापक स्थानीय होते हैं जो आस-पास के लोगों को जानते हैं. हम सरकारी स्कूल वाले दूर-दूर से अपने स्कूल पहुंचकर बस बच्चों के आने का इंतज़ार करते रहते हैं. हमारा स्कूल पहुंच पाना ही अपने आप में एक लड़ाई है' श्रीनगर में काम कर रहीं एक सरकारी स्कूल की टीचर, मसरत जान, ने सत्याग्रह को बताया. मसरत दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले की रहने वाली हैं.


हालांकि एक चीज़ है जो निजी और सरकारी स्कूल दोनों के प्रशासन करने में कामयाब हुए हैं. इन्होंने अपने अलग-अलग कक्षा के बच्चों के लिए असाइनमेंट तैयार किए हैं और हर बच्चे के घर इन्हें पहुंचा दिया गया है. इनमें बच्चों को वे चीज़ें पढ़ने और तैयार करने की हिदायत दी गयी है जो स्कूल घाटी बंद होने से पहले पढ़ा चुके थे.


'इरादा यह है कि इन्ही पढ़ी हुई चीजों की परीक्षा लेकर बच्चों को नयी क्लास में दाखिल किया जाएगा' अनंतनाग में स्थित 'द एजुकेटर' नाम के स्कूल के प्रशासक सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. इरादे के साथ-साथ दुविधा यह है कि परीक्षाएं अच्छे से हो पाएंगी इसकी कोई गारंटी नहीं है.


'परेशानी यह है कि अगर बच्चे स्कूल नहीं आ पा रहे हैं तो वे परीक्षा देने कैसे आएंगे' द एजुकेटर' के प्रशासन कहते हैं, 'हम सोच रहे हैं कि मोहल्लों में ही कोई जगह देखकर वहीं बच्चों की परीक्षा ली जाये ताकि उन्हें घर से ज़्यादा दूर न जाना पड़े,'


अब ये बच्चे कैसे आगे बढ़ेंगे, परीक्षाएं हो पाएंगी या नहीं और इनकी पढ़ाई कितनी प्रभावित होती है यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. फिलहाल परेशानी यह है कि इन बच्चों के माता-पिता को लगता है कि उनके बच्चों के व्यवहार में काफी अंतर दिखने लगा है.


पुलवामा जिले के पांपोर इलाक़े में रहने वाले मुश्ताक़ अहमद ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा कि उनका बेटा बहुत शांत स्वभाव का था और कभी किसी चीज़ पर बिना वजह ज़िद्द नहीं करता था. 'लेकिन आजकल वो अपनी छोटी बहन से लड़ने लगा है और बात-बेबात ज़िद्द भी बढ़ गयी है. मुझे लगता है यह सब अपने स्कूल और दोस्तों से कट जाने का नतीजा है' मुश्ताक़ कहते हैं.


हालांकि कश्मीर के कुछ मनोचिकित्सक, जिनसे सत्याग्रह ने इस विषय में बात की, कहते हैं कि अभी तक बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन के केस उनके पास नहीं आए हैं. 'लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा तो मुझे डर है कि आने वाले समय में ऐसा ज़रूर होगा' क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक, मुदस्सिर अज़ीज़, ने सत्याग्रह से बात करते हुए यह कहा. वे कहती हैं कि वे अपनी पांच साल की बच्ची में भी थोड़े परिवर्तन देख रही हैं.


सब यही उम्मीद जता रहे हैं कि ऐसे किसी परिवर्तन से पहले ही बच्चे अपने सामान्य जीवन में फिर से व्यस्त हो जाएं ताकि उनकी पढ़ाई और सेहत दोनों खराब होने से बच जाये.


लोगों की यह उम्मीद कैसे पूरी होगी वह देखने वाली बात होगी क्योंकि फिलहाल कश्मीर में हालात सामान्य होने के संकेत दिखाई नहीं दे रहे हैं.


साभार -सत्याग्रह