राष्ट्र संघ के अंतर्गत युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन अन क्लाइमेट चेंज कान्फ्रेंस (UNFCC) की CoP 25 (कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ -25) आजकल मैड्रिड में चल रही है.
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चर्चा के प्रमुख मुद्देः
1. 2015 में पैरिस बैठक में सभी देशों ने ग्रीनहाउस वायुओं को कम करने के वादे किये. अब इन वादों पर कितना काम हुआ इस पर नज़र डालने का समय है. लेकिन देखा गया है कि वादे बहुत कमज़ोर हैं. इन्हें पूरी तरह लागू कर दिया जाए तो भी वर्ष 2100 तक पृथ्वी पर तापमान 3 से 4 डिग्री बढ़ने के पूरे आसार हैं और 1.5 से 2.00 डिग्री की ख़तरनाक़ सीमा तो 2035 और 2050 के बीच पार हो जाएगी. इस CoP के विचार का विषय यह है कि सभी देश अपने वादों में कैसे अधिक मज़बूत बना सकते हैं वैश्विक तापमान की वृद्धि को 2.0 डिग्री से नीचे तक सीमित रखा जा सकता है. इन वादों को NDC (Nationally Determined Contribution – राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) कहा जाता है. (इस लक्ष्य तक पहुँचना अब संभव नहीं है).
2. इस दरमियान, 2014-16 के बीच कार्बन डायोक्साइड और ग्रीनहाउस वायुओं की वृद्धि स्थिर रहने के बाद फिर इसमें उछाल आया है. 2018 में ग्रीनहाउस वायुओं की निष्पत्ति 55 Gt से अधिक रही है. 2030 तक इसमें 50% कटौती करना ज़रूरी है. (लेकिन इसकी कोई उम्मीद दिख नहीं रही है).
3. इधर South Asian People's Action on Climate Crisis SAPACC (सौम्य दत्ता जी का संगठन) कहता है कि विकसित देशों को 2030 तक और विकासशील देशों को 2040 तक ग्रीन हाउस वायुओं की निष्पत्ति को बिलकुल शून्य (net-zero) तक लानी चाहिए.
4. 2020 में यू.के. के ग्लासगो में CoP-26 (संबंधित राष्ट्रों की 26 वीं परिषद) मिलने वाली है, जिसमें सभी देश अपने नये वादे (NDCs) लेकर आएंगे. CoP-25 (वर्तमान मैड्रिड परिषद)में इस पर चर्चा चल रही है. . चर्चा का अन्य प्रमुख मुद्दा है 'पैरिस रूल बुक' (Paris Rulebook) को अंतिम रूप देना. पैरिस समझौते के हर पहलू के लिए सर्वमान्य नियम बनाने का मुद्दा महत्वपूर्ण है. 300 पृष्ठ की यह रूल बुक को तक़रीबन अंतिम रूप दे दिया गया है.
5. पैरिस समझौते के अनुच्छेद 6 में मार्केट और नॉन-मार्केट (सहकारी) की भूमिका दर्शाई गई है. इसके दो लक्ष्य हैं – ग्रीनहाउस वायुओं की निष्पत्ति को घटाना और पुनः इस्तेमाल में लिए जाएं ऐसे ऊर्जा स्रोतों के विकास में देशों को मदद करना.. बाज़ार की भूमिका एक विवादास्पद मुद्दा है. – अनुच्छेद 6.2 के अनुसार अगर किसी देश ने अपने लक्ष्य (NDC) से अधिक सुधार किया है तो वह अपना 'सरप्लस' जो देश अपने लक्ष्य (NDC) में पिछड़ रहा है, उसे बेच सकता है इसे इंटरनेशनली ट्रान्सफर्ड मिटिगेशन आउटकम (Internationally Transferred Mitigation Outcome अथवा संक्षेप में ITMO) कहते हैं. यहाँ यह याद करें कि आधे से ज़्यादा देशों के वादे इस मार्केट पर ज़ोर देते हैं. इससे पहले, क्योटो प्रोटोकोल (क्योटो समझौता) में भी “एमिशन्स ट्रेडिंग स्कीम' (Emissions Trading Scheme – ETS) थी, जो पूर्णतया नाकाम रही और इसके ज़रिये एमिशन तो क्या कम हुआ, विश्व स्तर पर धाँधली और धोख़ेबाज़ी हुई.
6. इस मार्केट व्यवस्था का कई सिविल सोसाइटी ग्रुप और वन संगठन कड़ा विरोध कर रहे हैं, लेकिन कुछ “क्लायंट NGOs” हैं (जिसमें भारतीय NGOs भी हैं) जो विरोध का लबादा ओढ़े मार्केट का समर्थन कर रहीं हैं. जैसे वे कहती हैं – “मार्केट व्यवस्था तो ठीक है, लेकिन इससे मानव अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए” या “बेचने वाला और ख़रीदने वाला देश एक ही ईकाई को दो बार गिनती में न ले” इत्यादि. अभी इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है.
7. 5 दिसम्बर को एक प्रेस कान्फ्रेन्स में सौम्य जी क्योटो प्रोटोकोल के कार्बन व्यापार की असफलता की चर्चा कर रहे थे तब एक NGO का प्रतिनिधि ऐसा ही कोई दावा करते हुए मार्केट व्यवस्था का बचाव कर रहा था.
8. अनुच्छेद 6.4 कार्बन और अन्य ग्रीनहाउस वायु का सरप्लस बेचने की स्वैच्छिक व्यापार के बारे में बताता है. इसका फ़ाय़दा देसी और बिदेसी बड़ी कंपनियों को हुआ. आप सीमा से अधिक जितना भी कार्बन या ग्रीनहाउस वायु पैदा करें, कोई बात नहीं, जिस देश या कंपनी ने अपने लक्ष्य को पार कर दिया है उसके सरप्लस को खरीद लो तो आप यह दिखा सकते हैं कि आपने जितनी मात्रा पैदा की उसमें से उसको घटा दिया जाएगा. इस तरह दिखेगा यह कि आपने कम कार्बन पैदा किया. दुनिया और भारत की कई बड़ी कंपनियों ने यह धोख़ाधड़ी की लेकिन उनके कारोबार से पैदा हुए ग्रीनहाउस वायु वास्तव में कम नहीं हुए जिसका नुकसान ऐसे प्रोजेक्टों के पास रहने वाले ग़रीबों को उठाना पड़ा. ऐसी कुछ कंपनियों के नाम हैं:गुजरात क्लोरोफ्लूरो केमिकल्स, रिलायंस सासण 4000 मेगावॉट का अल्ट्रा मेगा कोल पावर प्लांट, अदाणी मुन्द्रा 4620 मेगावॉट का अल्ट्रा मेगा कोल पावर प्लांट और अन्य बड़े सोलर और विंड फार्म्स.
9. केवल अनुच्छेद 6.8 मार्केट को छोड़कर अन्य रास्तों के बारे में मार्गदर्शन देता है.
10. चर्चा में दूसरा बड़ा मुद्दा “घाटा और नुकसान”( "Loss and Damage") का है. क्लाइमेट के बदलाव का मुक़ाबला करने की नीतियाँ लागू करने के बावजूद) क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभाव से बचना मुश्किल साबित हुआ है. विकासशील देश इस घाटे और नुकसान की एवज में पैसे माँग रहे हैं. विकसित देश इस प्रकार का मुआवजा चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि इस माँग को मानने से अनगिनत दावे उठ खड़े होंगे.
बैठक का पहला सप्ताह समाप्त हो चुका है, अब दूसरे हप्ते में बातचीत अधिक गर्म रहेने के आसार हैं.