रोशन बाग धरने के पुरुष साथी


 उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कल एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि, "बवाल करने वाले संपत्ति जब्ती से बचने के लिए महिलाओं को सड़क पर बिठा कर, खुद रजाई ओढ़ कर सो रहे हैं।"  उनका यह बयान औरतों को इस्तेमाल किए जाने वाले सामान मानने की पितृसत्तात्मक विचार प्रक्रिया को एक बार फिर उजागर करता है, इसके पहले भी वे औरतों के बारे में ऐसे बयान दे चुके हैं। वे सोच ही नहीं सकते कि औरतें, अपनी योजना के तहत खुद कोई आंदोलन कर सकती हैं।  उनकी मानसिकता यह समझने में बाधक है।  
दरअसल मुख्यमंत्री  का यह बयान आंदोलनकारी औरतों से जुड़ें पुरुषों की मर्दानगी को ललकारने वाला बयान है, और कोई सामंती आदमी ही ऐसा कर सकता है।
 मैंने कल कुछ पुरुष वॉलंटियर से बात की, कि वे रजाई ओढ़ कर सोने कब जाते हैं, और वे महिलाओं के इस आंदोलन को कैसे समर्थन दे रहे हैं।
राहिल माबूद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, लेकिन उनका घर इलाहाबाद है। इन दिनों छुट्टियों में वे घर आए हैं, 30 जनवरी को वापस जाना है, रोशन बाग़ के इस धरने में उनके घर से अम्मी और दो बहनें हर रोज़ शामिल होती है, वे घर में तो उन्हें यहां आने के लिए मदद करते ही हैं, यहां भी वॉलंटियर के तौर पर सक्रिय हो गए हैं। वे पूरा दिन यहां रहते हैं, देर रात तक भी। उनका कहना है जब हमारी अम्मी और बहनें यहां हैं तो मैं क्यों न इसका हिस्सा बनूं?
सकलैन मुस्तफा और फरहान उन नौजवान लोगों में हैं, जो एकदम शुरू से आंदोलन में शामिल हैं। सकलैन लखनऊ में इंजीनियरिंग के छात्र हैं वे शाहीन बाग़ के आंदोलन से काफी प्रभावित थे। छुट्टियों में घर आए तो यहां भी कुछ महिला मित्रों से बात करके रोशन बाग़ में इकट्ठा होने लगे, और ये कारवां बढ़ता गया। फरहान भी इस मुहिम में उनके साथी है। दोनों के घरों की औरतें भी हर रोज़ धरने पर आ रही हैं। "वे धरने पर समय से पहुंच जाए, क्या इसके लिए वे मम्मी और बहन की घरेलू कामों में मदद करते हैं?" इस सवाल पर दोनों ने मुस्कुरा कर एक दूसरे को देखा और कहा, "घर तो जाते ही नहीं है।" 
दाऊद खान का कहना है कि "ये आंदोलन अब सिर्फ इसलिए नहीं रह गया कि CAA NRC NPR  हटना चाहिए, बल्कि मुसलमानों के खिलाफ जितनी गलत बातें प्रचारित है, जैसे कि मुसलमान आतंकवादी होता है ' जैसी धारणा को तोड़ने के लिए भी है।" 
कलीम उनका समर्थन करते हुए कहते हैं कि, दविंदर सिंह जैसे आदमी को मीडिया नहीं दिखती, जो आतंकवादी कार्यवाही में शामिल होते हैं, लेकिन हमारे कपड़े से लेकर रहन सहन सब कुछ को आतंकवादी बताया जाता है और यह पिछले 6 साल से बढ़ा है। हमारा गुस्सा इन सबके खिलाफ है। 
कलीम खान आंदोलन की एक मुख्य अगुआ सारा खान के भाई हैं। वे भी बहन के साथ पहले दिन से ही रोशन बाग़ के आंदोलन का हिस्सा हैं। आंदोलन के साथ बहन सारा को इनका हर तरह का समर्थन है। कलीम की दुकान है गारमेंट्स की। 
जब हम कलीम से बात कर रहे थे तो एक लड़का बीच में आया और उसने  कलीम से कहा "मैं कुछ बोलना चाहता हूं, मेरा नाम दे दीजिए।" मैंने पूछा क्या बोलना चाहते हो, बताओ। उसने जल्दी से अपनी छोटी सी डायरी निकली और सुनाया, वीडियो लगा रही हूं। उसने बताया कि ये उसकी खुद की लिखी हुई है।
"अपनी दुकान छोड़ कर इतने दिनों से आंदोलन का हिस्सा क्यों बने" ये पूछने पर कहते हैं कि इस कानून को तो वापस जाना ही चाहिए जो कि संविधान के खिलाफ है। साथ ही हमारे अंदर बहुत दिनों का गुस्सा भी है, खासतौर पर लिंचिंग की घटनाएं मुझे बहुत परेशान करती रही हैं, मैं या कोई भी धर्म के आधार पर कभी भी मारा जा सकता है, यह बात परेशान करती रही है, क्या करें ये समझ में नहीं आता था, जब औरतों ने ये आंदोलन शुरू किया, तो लगा कि इसका हिस्सा बनना ही चाहिए, इसके बहाने से हम बहुत दिनों के गुस्से का इजहार कर रहे हैं।
उमर खालिद इस आंदोलन के ऐसे अगुआ हैं, जिन्हें प्रशासन की ओर से कारवाही किए जाने की नोटिस मिल चुकी है, फिर भी वे इसका अभिन्न हिस्सा है। वे भी अपनी दुकान किसी और के भरोसे पर छोड़ कर धरने को लगातार अपनी सेवाएं दे रहे हैं। 
"इस आंदोलन से घर और मुस्लिम समाज में क्या कुछ बदलाव आया है क्योंकि आमतौर पर ये धारणा है कि ये एक बंद समाज है?" इस सवाल पर उमर कहते हैं, इतनी सारी औरतें घर के बाहर अाई हैं, दिन में ही नहीं, रात में भी घर से बाहर रह रही हैं, लेकिन किसी मौलाना ने इनके खिलाफ  आज तक कोई फतवा नहीं जारी किया, ये समाज में बदलाव है। और घर में ये बदलाव है कि मेरी दो साल की बेटी रो रही थी,जब उसकी खाला उसे चुप कराने के लिए बोली तुम्हें क्या चाहिए, तो उसने तुरंत जवाब दिया "आज़ादी।"
क्या अब आप को समझ में आया आज़ादी के नारे से क्यों डरती है सरकार?
रोशन बाग़
24 जनवरी
सीमा आज़ाद