हिन्दू तुरक नहीं कछु भेदा !
चौदहवी और पंद्रहवी सदी के संत रविदास कबीर और गुरु नानक के समकालीन एक महान भक्त कवि, आध्यात्मिक गुरु और समाज सुधारक रहे थे। दलित परिवार से आए रविदास ने जूते बनाने का व्यवसाय करते हुए सन्तों की संगति में अध्यात्म और सामाजिक समानता का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर ने के बाद 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का उद्घोष कर रूढ़िवादी समाज को जातिगत और धार्मिक श्रेष्ठता की जगह आंतरिक पवित्रता, निर्मलता, प्रेम और मानवीय करुणा का मंत्र दिया था। सामाजिक और धार्मिक बराबरी और निश्छल भक्ति का अलख जगाते उनके पद और दोहे हमारे साहित्य के अनमोल धरोहर हैं। रहस्यमय, कठिन, जटिल दार्शनिक रहस्यों को बोलचाल की सरल भाषा में समझा कर उन्होंने अशिक्षित और समाज की मुख्य धारा से कटे लोगों के लिए आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 'संतन में रविदास' कहकर कबीर ने इनके प्रति सम्मान प्रकट किया था। उनकी सहजता और सरलता से प्रभावित होकर मीरा ने उन्हें आध्यात्मिक गुरू स्वीकार किया था - 'गुरु मिलया रविदास जी' ! कबीर में जहां सामाजिक गैरबराबरी और अंधविश्वास के विरुद्ध आक्रोश है, वहीं रैदास की दृष्टि करुणा के माध्यम से समाज परिवर्तन की है। उनके चालीस पद सिखों केपवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में शामिल हैं। आज जयंती पर भक्ति, जीवन और मानव-मूल्यों के प्रति आस्था जगानेवाले इस संत कवि को नमन, उनके कुछ दोहों के साथ !
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।
ब्राह्मण को मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।
ध्रुव गुप्त
लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं