राष्ट्र को अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री एक ही बात बार-बार दोहरा रहे थे कि सोशल डिस्टेंसिंग यानि समाज से अलग रहना और लॉकडाउन ही कोरोना से बचने का एकमात्र उपाय है। वह यह भी कह रहे थे कि अमीर देशों को भी यही करना पड़ा। क्या यह सच है ? क्या प्रधानमंत्री को पता नहीं है कि यूरोप और अमेरिका की सरकारों ने अपने नागरिकों को कोरोना महामारी से होने वाली कठिनाइयॉं से बचने के लिए कैसे पैकेज दिए हैं ? अमेरिका ने इसके कारण नौकरी गंवाने वालों को परिवार चलाने के लिए पैसे देने का फैसला किया है। वह इन उपायों के लिए २ खरब डॉलर खर्च करेगी। सामाजिक सुरक्षा के इन उपायों को सीनेट की सहमति अभी तक नहीं मिली है क्योंकि विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी सिर्फ सामान्य लोगों पर खर्च करना चाहती है जबकि ट्रम्प इसका कुछ हिस्सा अमीरों के लिए भी खर्च करने की कोशिश में हैं। जहाँ तक कोरोना के मरीजों का सवाल है तो उनकी फ्री टेस्टिंग है और इलाज का खर्च सरकार उठा रही है।
हमारी हालत तो एकदम ख़राब है। अस्पताल में टेस्टिंग के सामान कम हैं और वेन्टिलेटरों का भारी अभाव है। प्राइवेट अस्पतालों में टेस्टिंग की अनुमति दे दी गयी है लेकिन वहां का खर्च सामान्य और गरीब परिवारों की पहुँच से बाहर है। भारत में काम करनेवालों का ९४ प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं जिनकी नौकरी लॉकडाउन में खत्म हो जाएगी। सरकार ने ऐसे लोगों के लिए कोई इंतज़ाम नहीं किया है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने गरीबों को १००० रूपये देने की घोषणा की है। क्या इससे उनके खाना-पीने और दवा वगैरह की व्यवस्था हो जाएगी ? देश में सिर्फ एक राज्य, केरल ने सभी जरूरी व्यवस्था की है।
केंद्र सरकार के एजेंडे में कोरोना तो है, लेकिन भारत की जनता नहीं। उन्होंने जनता से वास्तव में हाथ जोड़ लिया कि अपनी व्यवस्था खुद कर ले भाई ! हाँ, बाहर निकले तो फिर मत कहना, कोरोना लगे या नहीं, पुलिस के डंडे तो पड़ेंगे ही पड़ेंगे !
अनिल सिन्हा
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है