आसमानी_क्रांति और #पत्रकारिता

#विमर्श
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कोरोना वायरस के हमले व लाॅकडाउन के दौरान कई ऐसे मुद्दे उठे हैं, जिसे लेकर सरकार पर अंगुलियां उठ रही हैं और इस दौरान मुख्यधारा की मीडिया सरकार के बचाव में तनकर खड़ा हो गई है. क्या यही पत्रकारिता का युगधर्म है ?


पीएम ने जब लाॅकडाउन की घोषणा की उसके दूसरे ही दिन से देश के विभिन्न हिस्सों से लोग अपने घरों के लिए चल दिए. जहां वे काम करते थे वह कारखाने व उद्योग बंद हो गए. उनके रहने व खाने-पीने की कोई व्यवस्था न होने से पैदल ही ये मजदूर अपने घर को चल दिए. शासन की तरफ से उनके घर जाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी.


इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे देश में अफरातफरी और अव्यस्था फैल गई. यही नहीं बल्कि लाॅकडाउन से पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अपने बयान में लगातार कोरोना वायरस के खतरे का मजाक उड़ाते रहे और इसे हल्के तौर पर ले ही नहीं रहे थे, बल्कि विपक्षी दल के नेताओं की खिल्ली भी उड़ाते रहे. लेकिन पीएम मोदी ने कोरोना के खतरे की गम्भीरता को रेखांकित करते हुए जब लाॅकडाउन की घोषणा की तब सरकार की नींद टूटी..! तो क्या इससे पहले सरकार को इसकी गम्भीरता के बारे में जानकारी नहीं थी ?


तब तो पूरी केंद्र सरकार कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिलाकर मध्यप्रदेश में विधायकों की खरीदफरोख्त में व्यस्थ थी. और गुजरात में ट्रंप की यात्रा की तैयारी में मजदूरों की बस्तियों को छिपाने के लिए दीवार बनाने में व्यस्त थी. इन पर जब सवाल उठता है तो मीडिया सरकार की तरफ से खुद ही प्रवक्ता बनकर सफाई पेश करने के लिए सामने आ जाती है. और ताली, थाली व दीप बजाने का गुणगान करने लगती है.


मुम्बई में रेलवे का टिकट लेकर घर जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे लोगों को पुलिस लठियाने लगती है. सवाल यह है कि जब ट्रेनों का परिचालन बंद है तो रेलवे विभाग टिकट क्यों बेच रहा था ? यह सवाल जब लोग पूछते हैं, तब रेल मंत्री से पहले मीडिया जवाब देने के लिए सामने आ जाती है. क्या यही पत्रकारिता है ? 


एक सजग और सतर्क पत्रकार का काम है सवाल पूछना, संदेह खड़ा करना और संवाद के माध्यम से सच का पीछा करना ताकि वह सामने आ जाए. गुजरात में तो अस्पतालों में धर्म के आधार पर वार्ड तक बना दिए गए हैं. यही नहीं धार्मिक आधार पर पीड़ितों के आंकड़े भी जारी किए गए हैं. इससे स्पष्ट है कि यह खेल सुनियोजित तरीके से चलाया जा रहा है और इस खेल में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है.


सरकार के बचाव में तथ्यों को छिपाकर जवाब देने को पत्रकारिता नहीं बल्कि दलाली व चाटुकारिता ही कहा जा सकता है. यह पत्रकारिता के नाम पर कलंक है. इसे "आत्मघाती पत्रकारिता" कह सकते हैं. अभी हाल में बनारस के मुक्तिधाम में लाॅकडाउन के दौरान ही 70-80 मजदूरों की मदद से काम शुरू हो गया था. यह खबर सोशल मीडिया और अखबारों में आने के बाद 15 अप्रैल को सुबह से काम बंद है. 14 अप्रैल को भी दिन-रात काम हुआ था, जब पीएम देश को सम्बोधित कर रहे थे.


सवाल यह है कि लाॅकडाउन के दौरान #पक्काप्पा के मुक्तिधाम में किसके आदेश पर काम शुरू हुआ था ? और यदि काम शुरू हुआ तो जिसने इसका आदेश दिया था, उसके खिलाफ क्या कार्यवाई हुई है ? क्या कोई एफआईआर दर्ज हुई है ? और यदि कोई कार्रवाई नहीं हुई है तो यह सवाल मीडिया को पूछना चाहिए. कानून सबके लिए समान है. बल्कि जिनके ऊपर इसका पालन कराने की जिम्मेदारी है, उनका दायित्व अधिक है.


हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम फिलहाल आसमानी क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं. और कोई भी क्रांति सबसे पहले शक्तिमान को बौना साबित कर देती है. यहां कोई महाबली नहीं है. सब अपनी-अपनी जिंदगी बचाने के लिए सुरक्षा कवच के साथ घरों में दुबके हैं. आसमानी क्रांति के इस दौर में भी महाबली की भूमिका में सड़क पर सफर में वही हैं जिनके सिर पर कोई छत नहीं है. आसमान ही उनकी छत है और धरती मां बिछौना हैं. भूखे पेट वे कोरोना वायरस से भी जूझ रहे हैं.


हम जानते हैं ऐसे लोगों की संख्या लाखों- करोड़ों में है. आसमानी क्रांति के दौरान उद्योंगों व छोटे रोजगार-धंधे बंद होने से इनकी संख्या में और तेजी से वृद्धि होगी. मध्यमवर्ग की कमर टूट चुकी है. अभी वह अपनी ऐंठन में है, वह भी जल्दी ही खत्म हो जाएगी. भूख का विस्तार हो रहा है. जल्दी ही वे भी इसकी चपेट में आने वाले हैं, जो ताली, थाली बजाते हुए नृत्य कर रहे हैं. यह भूख और मनुष्य की उपलब्धियों का जश्न है. खूब जलाइए दीप..! मुक्ति दरवाजे पर दस्तक दे रही है.


चाटुकारिता की डफली बजाने वाली पत्रकारिता के भी अच्छे दिन जल्दी ही आने वाले हैं ? इसका स्वाद उन्हें भी चखना होगा. तब पता लगेगा कि घोड़े के मुंह में लगी लगाम का स्वाद कैसा होता है. कोरोना वायरस की कोई नागरिकता नहीं है. यह सार्वभौमिक है. मीडिया घराने से ऐसी खबरें आने भी लगी हैं.


वैश्विकता किसे कहते हैं इसका पाठ कोरोना ही हमें सिखाएगा. लेकिन अफसोस अभी भी हम अपनी छुद्रता, धूर्तता और सोच की दरिद्रता को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. हमारा विनाश करने के लिए हमारी यह सोच ही काफी है. विश्वात्मा हमारी धूर्तता से उपजी इच्छा को समझ रही है. उसका काम हमारी इच्छा की पूर्ति करना है. और यह दिख भी रहा है. (क्रमश: जारी...)!
                                          #सुरेश_प्रताप