जो बचेगा
(यह कविता कोरोना काल से बहुत पहले की लिखी हुई है और
2007 में छपे संकलन में है पर आज भी प्रासंगिक लग रही है,
इसलिए प्रस्तुत !)
"जो बचेगा "
वह देखेगा
प्रलय की बाढ़
डूबती कश्तियाँ, वन वनस्पतियां
चीखते लोग, बहते ढोर और
अन्न ओषधि के बीज लिए मनु.
जो बचेगा
वह देखेगा
अपार जलराशि में अकेला मार्कण्डेय
और वट वृक्ष से झूलते
पालने में हँसता शिशु.
अजब है प्रलय की गाथा
एक ओर है विनाश
दूसरी ओर सृजन
बचे रहने की जदोजहद भी है.
वही देखेगा यह सब
जो बचेगा.
बचे हुए लोगों की आशंका
और आस
उनका भय और विश्वास
सृजन के पहले अंकुर
नन्ही कोंपलें
उन पर चमकती ओस.
जो बचेगा
वह देखेगा
टूटता बनता बिगड़ता भारत.
वह देखेगा
बार बार होते चुनाव
लड़ते भिड़ते पक्ष विपक्ष.
वह देखेगा
दहशत में भागते लोग
भूख से बेहाल
लड़ते झपटते लोग
दंगों में मरते इंसान
और सनसनीखेज ख़बरें.
वह देखेगा
एक दूसरे पर गरजते बरसते
बाहर गलबहियां डालते
टेलीविजन में घुसे सफेदपोश.
वह देखेगा
मेकअप में उछलते कूदते एंकर
करते बस अपनी ही बात.
जो बचेगा
सुनाएगा किस्से
लिखेगा दास्तान दर्दीले दिनों की
वही बखानेगा कहानी.
जो बचेगा
वही होगा कथानायक
जिन्दा रहना है जरुरी
कथानायक बनने के लिए.
वही देखेगा यह सब
जो बचेगा
जो बचेगा वही रचेगा.
Sudarshan Vashishtha ji