बिहार में नक्सली आतंक से त्रस्त कई जिलों के कार्यकाल में मेरा अनुभव यह रहा है कि युवाओं में बेरोज़गारी और प्रशासन तथा पुलिस से लोगों के भरोसे का उठ जाना ही नक्सलवाद के विस्तार की मुख्य वज़हें हैं। बेरोज़गारी से निज़ात दिलाना तो सरकार की नीयत और इच्छाशक्ति पर निर्भर है, लेकिन प्रशासन और पुलिस अगर आम लोगों की तकलीफों और समस्याओं के प्रति थोड़ी संवेदनशील हो तो नक्सल समस्या पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है। बात 2001-2002 की है जब मैं बिहार के मोतिहारी जिले में पुलिस कप्तान के रूप में पदस्थापित था। उस जिले के नेपाल और शिवहर जिले से लगी सीमा के दर्जनों गांवों में नक्सलियों का आतंक अपने चरम पर था। लगातार हत्याएं और गांवों पर हमले हो रहे थे। पुलिस की कोई भी कार्रवाई इसीलिए असफल हो रही थी कि उपद्रव के बाद कुछ ही देर में नक्सली नेपाल की सीमा पार कर जाते थे। समस्या की जड़ में जाने पर यह पता चला कि उस इलाके के थानों, प्रखंडों, अंचलों के लगभग तमाम अधिकारी वहां के एक दबंग मंत्री की अपनी जाति के ही थे और उन्हीं से आदेश लेकर मामलों का निबटारा करते थे। इस वजह से इलाके में भयंकर असंतोष था। सबसे पहले तो मैंने थानों की संरचना बदली और सभी जातियों के कर्मठ अधिकारियों को वहां तैनात किया। फिर मुझे लगा कि बिना किसी तामझाम के लोगों के बीच जाकर मुझे उनकी समस्याएं जाननी और उनका फौरन निबटारा करना चाहिए ताकि पुलिस की खोई हुई विश्वसनीयता लौटाई जा सके।
उस क्षेत्र के कुछ अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों को लेकर मैंने इलाके की पैदल यात्रा शुरू की। रास्ते में पड़ने वाले हर गांव में किसी बगीचे या स्कूल के परिसर में रुकता और लोगों की समस्याएं सुनता। ज्यादातर समस्याएं दबंगों द्वारा गरीबों की जमीन पर कब्ज़े या झूठे मुक़दमे में उन्हें फंसाने की थी। मैं स्पॉट पर ही जांच करा कर गरीबों को उनकी जमीन वापस दिलाता और उन झूठे मुकदमों को खारिज कराता चलता। एक दिन में दो-तीन गांवों में यह सिलसिला चलता। धीरे-धीरे मेरे साथ पद-यात्रा पर चलने वाले लोगों की संख्या हजारों में हो गई। हमारा खाना बनाने के लिए सिपाही और चौकीदार साथ थे। दिन में भात-दाल, रात में लिट्टी-चोखा। खुद भी खाते और आसपास मौजूद ग्रामीणों को भी खिलाते। लोगों से आत्मीयता का रिश्ता बनता चला गया। मैं न्याय का भरोसा देकर लोगों से आग्रह करता कि वे अपने परिचय के नक्सलियों से संपर्क कर कानून के आगे आत्मसमर्पण कराएं और उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस लौटाने में मदद करें। तीन दिनों बाद नक्सलियों की तरफ से आत्मसमर्पण के प्रस्ताव आने लगे। मैंने उनमें से कुछ के साथ समाज और पुलिस द्वारा हुए अन्याय का का भरसक प्रतिकार करने की कोशिशें भी की। चौथे दिन जब मैं एक गांव में बैठकर लोगों के मसलों का समाधान कर रहा था कि थोड़ी ही देर में आत्मसमर्पण के लिए कुछ नक्सलियों के वहां आने की सूचना मिली। जिला मजिस्ट्रेट को भी मैंने वहां बुला लिया। शाम होते-होते करीब करीब तीन दर्ज़न नक्सलियों ने हजारों ग्रामीणों के समक्ष हमारे सामने आत्मसमर्पण कर दिया और भविष्य में किसी भी परिस्थिति में हिंसा का रास्ता न चुनने की कसमें खाईं। वह दृश्य मेरे लिए ही नहीं, वहां उपस्थित ग्रामीणों के लिए भी एक अभूतपूर्व अनुभव था। भावुकता के अतिरेक में मंच पर ही मेरी आंखों से आंसू निकल आए।
उस शाम के बाद मेरे कार्यकाल तक मोतिहारी जिला पूरी तरह नक्सली आतंक से मुक्त रहा। आज भी कमोबेश मुक्त ही है। मुझे अफ़सोस बस इस बात का रहा कि जिले से मेरे स्थानांतरण के बाद आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास का काम ठीक वैसा नहीं हो सका जैसा मैंने और खुद उन पूर्व नक्सलियों ने भी सोचा था। खैर, इस किस्से का लब्बोलुबाब यह है कि ताक़त से आप सिर्फ किसी से बदला ले सकते हैं, किसी को बदलना तो सिर्फ न्याय, प्रेम और करुणा से ही संभव है। नक्सल-समस्या तब तक ख़त्म नहीं हो सकती जबतक न्याय की व्यवस्था सुलभ नहीं होगी और प्रशासन तथा पुलिस को थोड़ा-बहुत मानवीय और संवेदनशील नहीं बनाया जाएगा। फ़िलहाल उसी दौर का कहा हुआ एक शेर आप सबके लिए !
प्यार से भी हम मर जाते हैं
आपने क्यों हथियार ख़रीदा !
ध्रुव गुप्त सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी