कोविड-19 वायरस की महामारी नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बड़े मौके से आई इसने दूसरे कार्यकाल के पहले साल को बचा लिया. यह साल आर्थिक मोर्चे पर बहती उलटी हवाओं से शुरू हुआ था. अर्थव्यवस्था के गैर-सरकारी हिस्से की वृद्धि दर दिसंबर तक की दो तिमाहियों के दौरान 3 प्रतिशत से कुछ ही ऊपर रही थी. राजनीति के मोर्चे पर मोदी नागरिकता कानून में संशोधन के बाद अंधी गली में पहुंच गए थे. इस संशोधन के खिलाफ लोगों के धरने-प्रदर्शन चल रहे थे और राज्यों की सरकारों तथा विधानसभाओं की ओर से भी प्रतिरोध हो रहा था, जिसके कारण दस साल पर होने वाली जनगणना को खतरा पैदा हो गया था. लेकिन देखिए कि चंद हफ्तों में ही नज़ारा किस तरह बदल गया है.
नागरिकता कानून का विरोध करने वाले बिखर गए हैं, राज्य सरकारें बेहद जरूरी वित्तीय सहायता के लिए कतार में खड़ी नज़र आ रही हैं और तमाम आर्थिक समस्याओं का ठीकरा मजे से कोरोना के सिर पर फोड़ा जा सकता है. संसद में कुछ अहम मसलों पर बहस के दौरान गायब रहे प्रधानमंत्री नोटबंदी की तरह अचानक लॉकडाउन घोषणा करने से लेकर ताऊनुमा नुस्खे बताने तक के लिए थोड़े-थोड़े दिनों पर राष्ट्रीय टेलीविज़न पर नज़र आने लगे हैं. वे विश्व मंच पर भी मौजूद दिखते हैं. दवाओं की इमरजेंसी सप्लाई के लिए अमेरिका और ब्राज़ील के राष्ट्रपतियों से सार्वजनिक धन्यवाद स्वीकार करते हुए.
विपक्ष के पास कोरोना संकट से निबटने के राष्ट्रीय प्रयासों का साथ देने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है. भले ही उसे सरकार की आलोचना करनी ही हो. इस बीच, चतुर राजनेता मोदी इस संकट का अपनी छवि चमकाने में इस्तेमाल करने (मसलन, ‘पीएम केयर्स’ कोश) से चूक नहीं रहे. यह ठीक वैसा ही है जैसे डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना के बहाने अपने प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन को टीवी के पर्दे से बाहर धकेल दिया है.
बेशक, गलतियां हो रही हैं. लेकिन देश जब एक नेता के इर्दगिर्द एकजुट हो रहा हो तब आलोचनाओं को झेलना आसान हो जाता है. ट्रंप ने कोरोना के खिलाफ कदम उठाने में देरी और गड़बड़ी के लिए हो रही अपनी आलोचनाओं का जवाब देने के लिए चीन से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन और हर किसी को कोसना शुरू कर दिया. भारत में इस संकट के दौरान प्रवासी मजदूरों की समस्या को लेकर आलोचनाओं का जवाब देने के लिए मोदी ने अलग तरीका अपनाया. उन्होंने माफी मांगते हुए यह भरोसा जताया कि लोग उन्हें माफ़ कर देंगे. बांग्लादेश और सिंगापुर ने लॉकडाउन लागू करने से पहले लोगों को थोड़ा वक़्त दिया, लेकिन मोदी तो सर्जिकल स्ट्राइक में यकीन रखते हैं!
जंग के दौरान नेतृत्व करने वाले नेता प्रायः लोकप्रिय हो जाते हैं, तब तो और भी ज्यादा जब वे कुशल वक्ता हों. ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान गड़बड़ किया (प्रथम विश्वयुद्ध में भी उन्होंने घातक फौजी अभियान चलाने का सपना देखा था), लेकिन वे शानदार तकरीरें करते थे. अमेरिकी अर्थव्यवस्था 1929-33 की भारी मंदी से एक दशक बाद तब उबरी जब युद्ध की तैयारी के लिए उत्पादन बढ़ाए गए, लेकिन इसका श्रेय रूज़वेल्ट की ‘न्यू डील’ को मिला. जॉर्ज डब्लू बुश ‘आतंक के खिलाफ जंग’ के बहाने दोबारा चुनाव जीतने में सफल रहे. हमारे अपने लाल बहादुर शास्त्री इसलिए नायक बन गए थे क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान को युद्ध में मुंहतोड़ जवाब दिया था और नेहरू की तरह पराजित (चीन के हाथों) नहीं हुए थे.
मोदी भी खुद को युद्धकालीन प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने को बेताब हैं. बालाकोट हवाई हमले को पिछले वर्ष चुनाव में अपने लिए हवा बनाने में बखूबी इस्तेमाल किया गया बावजूद इसके कि हमने अपना एक विमान गंवा दिया और एक कमजोर पड़ोसी के खिलाफ हमारी फौजी तैयारी की कमजोरियां (पुराने विमान, और मिसाइल आदि) उजागर हुई थीं. इससे पहले 2016 में उड़ी में आतंकवादी हमले का जवाब ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से तो दिया गया लेकिन उस मामले में भी सुरक्षा व्यवस्था की विफलताओं को लेकर उठे सवाल दरकिनार हो गए. अब मोदी के सामने अधिक वास्तविक और अलग तरह की जंग है, जिसे वे महाभारत के समान मानते हैं.
अब अगर आप उनके अगले कदम का अनुमान लगाना चाहते हैं तो 2007 में एक मीडिया आयोजन में दिए उनके उस भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने बताया था कि महात्मा गांधी ने आज़ादी के आंदोलन को किस तरह जन आंदोलन में बदल दिया था. मोदी ने कहा था कि वे विकास के कार्यों को कुछ ऐसा ही रूप देना चाहते हैं. इसमें सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलिंडर को ‘लौटाने’ की उनकी पहल के सूत्र पाए जा सकते हैं. आज जनता कर्फ़्यू, ताली-थाली, दीया-मोमबत्ती आदि भी मोदी के जन आंदोलन वाले लक्ष्य से प्रेरित नज़र आते हैं. इन्हें दांडी मार्च के बराबर तो नहीं रखा जा सकता लेकिन मोदी ने अभी डटे हुए हैं और कोरोना भी अभी पैर फैला रहा है. गांधी की तुलना में मोदी की पहल में फर्क यह है कि इनमें दबाव का तत्व निहित है- साथ नहीं दिया तो पिट सकते हो! इस बीच, मुसलमानों को हाशिये पर धकेलना भी एक जन आंदोलन बन गया लगता है.
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