अंग्रेजी शासन के बाद और किसी भी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा देश के नागरिकों के बीच इस तरह की वर्गीय भेदभाव की पहली घटना है।

कैसी हैं ये सरकार ?
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 पत्रकारों को आखिर यह कैसे पता चला कि मज़दूर रेल की पटरी पर सो रहे थे? हमें तो शक होता है कि वो रेल की पटरी की हकीकत भी जानते हैं कि नहीं। आखिर रेल की पटरी पर कोई कैसे सो सकता है... पहली बात की रेल की उबड़ खाबड़ पटरी पर टेढ़े मेढ़े होकर कोई कुछ देर के लिए लेट तो सकता है पर नींद से सो नहीं सकता। नींद से सोने का मतलब है कि वो एकदम पस्त हो गया हो और हिलने की ताकत भी न हो। या फिर उन पटरियों पर बेहोश हो गया हो। यदि मान लिया जाए कि सो भी गए थे तो लोहे की पटरी पर रेल की आवाज़ के किलोमीटर दूर से सुनाई देगी और साथ ही उसमें उत्पन्न कंपन किसी भी नींद को अनिद्रा में बदलने में समर्थ है। रेल की पटरियों पर सोना सामान्य या सहज नहीं है। इसलिए जब मीडिया यह दावा कर रही तो उसे यह भी बताना चाहिए कि सोने का सबूत उनके पास क्या है और किस आधार पर वो सोने की बात कर रहे हैं...


यह बात मेरे गले नहीं उतर रही है। मुझे नहीं पता वहां क्या हुआ, कैसे हुआ, लेकिन उतनी असामयिक मौत नहीं, बल्कि व्यवस्था द्वारा हत्या हुई है। इस व्यवस्था ने ही उन्हें मजबूर किया रेल में बैठ कर जाने के बजाय रेल की पटरियों पर पैदल चलने को। विदेश से लोगों को लाने के लिए वंदे भारत मिशन चल सकता है लेकिन गरीब मज़दूरों के लिए रेल बस बन्द कर दी जाएंगी और पुलिस द्वारा पीटा जाएगा। अंग्रेजी शासन के बाद और किसी भी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा देश के नागरिकों के बीच इस तरह की वर्गीय भेदभाव की पहली घटना है। गांधी को तो दक्षिण अफ्रीका में इस भेदभाव का पता लगा। वो आज ज़िंदा होते तो दक्षिण अफ्रीका के बजाय स्वतंत्र भारत में ही उनको वो सारा अनुभव मिल जाता।


अलविदा साथियों! हो सके तो हमें माफ कर देना क्योंकि हम उसी देश के नागरिक हैं जिनकी चुनी हुई सरकार की व्यवस्था के हाथ तुम्हारे खून से सने हैं।


@ Masaud Akhtar