प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में प्रेमचंद का भाषण
९ अप्रैल, १९३६
भाषण और भाषण पर विवाद
[ यहां हम प्रेमचंद के उस ऐतिहासिक भाषण को दे रहे हैं जो उन्होंने लखनऊ में ९ - १० अप्रैल को संपन्न हुए प्रलेस के स्थापना सम्मेलन में अध्यक्ष के रूप में दिया ।
संदर्भ के रूप में यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस तरह से छोटी-छोटी बातों पर लंबी बहस हो जाती हैं, उस जमाने में भी ऐसा होता था ।
प्रेमचंद के इस भाषण के बारे में ऐसा वितंडा मचा जो अभी तक शांत नहीं हो पाया है । प्रेमचंद जब यह भाषण दे रहे थे तो पोडियम पर कलम से कुछ काट-छांट करते जा रहे थे या झुककर लिखे को कुछ गौर से देख रहे थे । तो प्रगतिशील दृष्टिकोण के विरोधियों ने यह गंभीर आरोप लगाए कि दर असल यह भाषण प्रेमचंद ने लिखा ही नहीं था बल्कि लिखा किसी ने, उन्होंने केवल पढ़ा । कई लोग तो इतने सनसनीखेज हो गए कि कहा कि उनके खड़े होने से पहले ही किसी ने उनकी जेब में रखा । इसके लिए इससे ज्यादा और क्या प्रमाण चाहिए था कि जब वे बोलने खड़े हुए तो उन्होंने जेब से उसे निकाला । अज्ञेय जैसे बड़े लेखक ने भी जब इस तरह के संदेहों को हवा दी तो इसकी गंभीरता समझ में आती है ।
अमृतराय द्वारा प्रेमचंद के जन्म-शताब्दी वाले भाषण में हिंदी में चले ऐसे कुत्सा अभियानों का जवाब उन्होंने दिया । हालांकि न मानने वाले तो आज तक इस विवाद को जिलाए हैं ।
लेकिन उर्दू में उससे भी गंभीर बहस चलती रही जो आज तक शांत नहीं हुई । प्रेमचंद द्वारा पहले आने में असमर्थता दिखाने, फिर लिखने का टापिक पूछने, संक्षिप्त में बात कहने, पहले से भाषण लिख कर न देने, खराब स्वास्थ्य आदि आदि का हवाला देकर यह सिद्ध किया गया कि यह भाषण उनके द्वारा लिखा ही नहीं गया था । इसके लिए मौलाना अब्दुल हक द्वारा संपादित हैदराबाद से छपने वाली पत्रिका ‘उर्दू’ के जुलाई, १९३५ के अंक ( प्रलेस सम्मेलन से नौ महीने पहले) में “अदब और जिंदगी” शीर्षक से प्रकाशित २१ वर्षीय श्री अख्तर हुसैन रायपुरी का हवाला दिया गया । कहा गया कि इस महत्वपूर्ण लेख में साहित्य के बारे में जो राय है और भारतीय साहित्य को उसकी रोशनी में जिस तरह से व्यावहारिक रूप में व्याख्यायित किया गया है प्रेमचंद के भाषण में उससे मिलती-जुलती कई बातें हैं । इसलिए आरोप लगाया गया कि प्रेमचंद का भाषण तैयार करते हुए सज्ज़ाद ज़हीर या किसी अन्य उर्दू लेखक ने उसके आधार पर यह भाषण तौयार किया होगा ।
रायपुरी जी का यह लेख उर्दू में है और लगभग सत्तर पेज का है, इसलिए फिलहाल उसे यहां देना तो संभव नहीं है, जिनकी ज्यादा दिलचस्पी हो वे नैट पर जाकर उसे पढ़ या डाउनलोड कर सकते हैं ।
ऐसे में कांफ्रेंस से पहले के उन तमाम संदर्भों को देखना जरूरी है जिनमें प्रेमचंद उसकी अध्यक्षता के लिए तैयार हुए ।
सज्ज़ाद ज़हीर लंदन से लौटने के बाद हिंदुस्तान के कई भागों में जाकर लेखकों, खासकर उर्दू लेखकों से मिले और उन्हें अच्छा रैसपोंस मिला । लखनऊ में अप्रैल की इन तारीखों में प्रलेस का सम्मेलन रखना इसलिए सोचा गया कि इन्हीं तारीखों में वहां कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था जिसमें नेहरू जी का भाषण था । उम्मीद थी कि नेहरू प्रलेस सम्मेलन के उद्घाटन की बात भी मान सकते हैं । न भी मानें तो भी कांग्रेस में आने वाले अनेक प्रतिभागी सम्मेलन में उपस्थित होकर संख्या और गरिमा बढ़ा सकते हैं ।
ज़हीर के इलाहाबाद के घर पर १४ फरवरी को हुई तैयारी बैठक में स्वयं प्रेमचंद मौजूद थे । उनके प्रकाशक और मित्र दया नारायण निगम द्वारा इसके बारे में प्रेमचंद को सतर्क किए जाने पर प्रेमचंद जी ने कहा था कि, ‘ मैं तो बूढ़ा हो गया हूं लेकिन जो नौजवान चाहते हैं वही करना चाहता हूं । मैं तो इस तूफानी समंदर में अपनी डगमग नाव खेऊंगा, अब वो कहां जायगी, परवाह नहीं ।’
प्रेमचंद से जब सम्मेलन की सदारत के लिए कहा गया तो उनका कहना था – मैं इसके योग्य नहीं हूं । मैं यह किसी विनम्रता से नहीं कह रहा बल्कि मुझमें अब हिम्मत नहीं है । इसके लिए कन्हैया लाल मुंशी या डॉ. ज़ाकिर हुसैन मुझसे बेहतर होंगे । पं. नेहरू हालांकि व्यस्त होंगे पर वे तो इसके लिए सबसे उत्तम हैं । अगर वे जरा सी भी रुचि सम्मेलन में दिखा दें तो इसे सफल समझो ।‘
बाद में कहा कि अच्छा हो अगर अगर बाहर का आदमी सदारत करे । लेकिन अगर कोई नहीं मिलता तो मैं ही कुछ शब्द कह दूंगा । बाद में उन्होंने अमरनाथ झा का नाम भी सुझाया । अपनी असमर्थता के लिए प्रेमचंद अपने गिरते स्वास्थ्य को कारण बता रहे थे क्योंकि सम्मेलन के नौ महीने बाद ही खराब स्वास्थ्य के चलते उनकी मृत्यु हो गई थी ।
इसके तुरत बाद ही उन्होंने फिर सज्ज़ाद ज़हीर को लिखा कि वे १४ अप्रैल को वर्धा में भारतीय साहित्य परिषद की बैठक में भाग लेने जाएंगे जहां गांधी जी अध्यक्ष होंगे । इसलिए वे प्रलेस के अध्यक्ष बनना तो दूर उसमें शायद भाग लेने भी नहीं आ सकते । उन्होंने ज़हीर से सम्मेलन को कुछ दिन स्थगित करने के लिए भी कहा ।
लेकिन इसके अगले ही दिन (१९ मार्च, १९३६) को उन्होंने विचार कर फिर कहा कि उन्हें कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू के भाषण का हिंदुस्तानी जबान में तर्जुमा करने को कहा गया है इसलिए वे उन दिनों लखनऊ में ही होंगे और तब तक यदि कोई और नहीं मिलता तो वे ही प्रलेस सम्मेलन की सदारत कर देंगे ।
जब गांधी जी के स्वास्थ्य खराब होने के कारण अंततः भारतीय साहित्य परिषद की बैठक स्थगित हो गई तो प्रेमचंद ने अंतिम तौर पर ज़हीर को कहा कि अब आप मेरे नाम की घोषणा कर सकते हैं । मेरा संबोधन छोटा ही होगा । मैं अभी तो उसे लिखकर नहीं दे सकता , उसकी शायद उतनी ज़रूरत भी नहीं । सम्मेलन में पढ़ने के बाद उसे छापा जा सकता है ।
इस तरह यह कार्यक्रम तय हुआ ।
प्रेमचंद जी ने प्रलेस के सम्मेलन में सभापति पद से जो भाषण दिया वह इस मायने में ऐतिहासिक था कि वह प्रेमचंद के अब तक के लेखन का निचोड़ ही नहीं उससे आगे की राह दिखाने वाला था । इसलिए कई लोगों को संदेह का अवसर मिला । कुछ लोगों ने उनके खराब स्वास्थ्य को लेकर संदेह किया कि ऐसे में वे इतना लंबा भाषण लिख ही नहीं सकते थे । कुछ लोगों ने इसे भी एक मुद्दा बनाया कि आखिर उन्होंने सम्मेलन से पहले भाषण को लिखित रूप में देने से क्यों इंकार किया । और अंत में सबसे बड़ा प्रश्न-चिन्ह था प्रेमचंद के भाषण में अख्तर हुसैन रायपुरी की कई बातों से समानता ।
ऐसे में प्रेमचंद जी का ऐतिहासिक भाषण दे रहे हैं । आप पढें, प्रेमचंद के साहित्य और विचारों के संदर्भ में उसे देखें और निश्चिंत हों ।]