अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया।चीन और पाक के छक्के छुड़ाने के लिए सीमा पर राफेल की तैनाती हो गई। न्यूज चैनलों ने मोदी जी की कूटनीति की डंका बजा दी। रिया जेल चली गई। कंगना को वाई-प्लस सुरक्षा मिल गई। अपने देश में चुनाव जीतने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? बेरोजगारी, श्रमिकों की बदहाली, गिरते विकास दर, बाढ़ की विनाशलीला, चरमराती शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को इस देश में चुनावी मुद्दा बनने में अभी वक़्त लगेगा। सो बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई में एन.डी.ए आत्मविश्वास से भरा हुआ है।उसके मुकाबले विपक्ष तेजहीन और अपाहिज नज़र आ रहा है। लालू प्रसाद के चुनावी परिदृश्य से हट जाने के बाद उनके बेटों -तेजस्वी या तेज प्रताप का नेतृत्व स्वीकार करने में राजद की सहयोगी पार्टियों में ही नहीं, खुद राजद के वरिष्ठ नेताओं में भी असमंजस है। इस परिवारवाद के कारण 'हम' पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी गठबंधन छोड एन.डी.ए का दामन थाम चुके हैं। राजद के सबसे अनुभवी, स्वच्छ छवि के नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी उपेक्षा से आहत होकर राजद से त्यागपत्र दे दिया है। आने वाले दिनों में अब्दुल बारी सिद्दीकी सहित पार्टी के कुछ और वरिष्ठ नेता उनका अनुसरण कर सकते हैं। दूसरे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस की छवि राजद के पिछलग्गू की है जिसके पास ऐसा कोई प्रभावशाली चेहरा नहीं है जो अपने बूते पांच-दस सीटें भी जितवा सके। एक-दो जगहों को छोड़ दें तो कम्युनिस्ट पार्टियों की बिहार में पकड़ अब नहीं रही।
बिहार का राजनीतिक समीकरण अभी एन.डी.ए के पक्ष में है।राज्य का प्रमुख विपक्षी दल राजद यदि परिवार के बाहर निकल रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को वापस लाकर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की सोचे तो विपक्ष की एकता भी बनी रह सकती है और एन डी.ए को राज्य में एक बड़ी चुनौती भी मिलेगी। लेकिन क्या यह संभव है ? अगर नहीं तो बिहार एक बार फिर एन.डी.ए शासन के लिए तैयार हैं।