एक शर्त आज मैं जीत गया| फलस्वरूप अपनी पत्नी से एक रुपया वसूला, क्योंकि अद्वितीय वकील प्रशांत भूषण ने ऐलान कर दिया कि वे अदालत की अवमानना के अपराध पर जुर्माने का भुगतान कर देंगे| हालाँकि शर्त लगाने को मैं पाप ही मानता हूँ| यह द्यूत का ही हिस्सा है| मुझे शराब, तम्बाकू और मांसाहार की भांति जुए से भी घोर घृणा है| चूँकि आज सत्य को चुनौती मिली थी, अतः हिचकिचाते शर्त लगा दी| घर में मेरी डॉक्टर बीबी, कोर्ट में प्रशांत भूषण की भांति चट्टान जैसी अड़ियल थी कि वकील साहब सर्वोच्च न्यायालय की आवक बढ़ने नहीं देंगे| ऐसा करने से अपराध की स्वीकारोक्ति हो जायेगी| पत्नी की दृढ़ता-भरी जिद थी और विश्वास था कि प्रशांत भूषण तीन माह तक जेल यातना भुगतने को तत्पर हैं| तीन साल बिना वकालत किये डटे रहेंगे| पर जुर्माना कतई नहीं भरेंगे| मैंने अर्धांगिनी को सचेत किया कि पत्रकार से पंगा टालना चाहिए, न्यायाधीशों से भी|
मेरे आकलन में वकील प्रशांत भूषण, वल्द शांतिभूषण अग्रवाल, ने अदालत आने के पहले सर्वमान्य प्रथम नियम को ही नहीं माना| उक्ति है कि न्यायालय के समक्ष आने के पूर्व हाथ साफ होना चाहिए| प्रशांत भूषण के सार्वजनिक बयान, तर्क, भाषण आदि को परखें तो ऐसा ही लगता है|
मसलन 12 अक्टूबर 2011 के दिन वाराणसी के मीडियाकर्मियों के पूछने पर वे बोले थे कि कश्मीर में भारत को जनमत कराना चाहिए| वे अपने पड़ोसी प्रयागराज के ही पंडित जवाहरलाल नेहरु द्वारा आकाशवाणी पर दिए वक्तव्य का सन्दर्भ ले रहे थे| तब नेहरु ने कश्मीर के आवाम को रायशुमारी का हक़ दे डाला था| प्रशांत भूषण ने इन तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया कि इस्लामी पाकिस्तान ने खुद उत्तरी कश्मीर पर जबरन कब्ज़ा कर रखा है| खाली नहीं कर रहा है| यह जनमत संग्रह की प्रथम मौलिक शर्त है| वकील साहब को याद नहीं रहा कि 1947 के सत्ता-हस्तांतरण विधेयक की खिलाफ-वर्जिश करके पाकिस्तान ने बजाय उनकी स्वीकृति लेने के बलूचिस्तान और कलाट को पकिस्तानी वायु सेना के बल पर इस्लामी गणराज्य में शामिल कर लिया था |
प्रशांत भूषण ने केजरीवाल के साथ आम आदमी पार्टी की स्थापना की थी| उन्होंने जनलोकपाल वाली मांग के संघर्ष में अन्ना हजारे का समर्थन किया था|
क्या हश्र हुआ जनलोकपाल का, जिसके लिए हजारे जी दिल्ली की सड़कों पर उतरे थे?
मशाल तो प्रशांत भूषण के हाथों में ही थी|
सर्वोच्च न्यायालय पर प्रशांत भूषण द्वारा थोपे गए भ्रष्टाचार वाले आरोप की जांच जब भी हो, पर प्रशांत भूषण के परिवारजन के हाथ कितने निष्कलंक हैं ?
यह सवाल घेरता है, जवाब मांगता है, कि 21 अप्रैल 2011 के दिन इलाहबाद हाईकोर्ट कि लखनऊ खण्डपीठ में एक राजनीतिक मुकदमे की पैरवी के लिए शांतिभूषण को पचास लाख रूपये की फीस किसने, काहे दी थी?
वह सोना उगलने वाली नोयडा की बेशकीमती दस हजार वर्ग मीटर की भूमि (लागत साढ़े तीन करोड़) केवल दस प्रतिशत भुगतान पर पिता-पुत्र को कैसे आवंटित हो गई थी?
मायावती की नोयडा में मूर्तियाँ लगाने के विरुद्ध मुकदमे की तभी सर्वोच्च अदालत में सुनवाई चल रही थी|
और स्वर्गीय ठाकुर अमर सिंह, समाजवादी सांसद, का सीडी वाला बयान?
सम्बंधित रपट “इकनोमिक टाइम्स के 21 अप्रैल 2011 में छपी थी|
इस मामले में शांतिभूषण जी ने साफ़ कह दिया था कि वे अमर सिंह को पहचानते तक नहीं हैं| तब अमर सिंह ने उस निजी एयर लाइन्स कम्पनी का विवरण दिया, जिनके चार्टर्ड जहाज से उनकी लखनऊ की यात्रा हुई थी| इस सीडी में शांतिभूषण जी की वाणी में यह भी दर्ज था कि एक मुकदमें में प्रशांत भूषण द्वारा जज को मैत्रीपूर्ण बनाया जा सकता है|
लक्ष्य क्या था?
प्रशांत भूषण ने अपना गहरा सरोकार जताया उन सभी पीड़ितों से जो उनकी दृष्टि में अन्याय के शिकार हुए थे|
मगर एक प्रश्न मेरे दिमाग में कौंधता है कि आखिर प्रशांत जी ही ऐसे एक मात्र वकील क्यों हैं जिनके सभी भारत-शत्रु, नृशंस नरसंहारक और जनतांत्रिक निजाम को चरमरा देनेवाले जघन्य अपराधी ही मुवक्किल बन जाते हैं?
याद कीजिये मियाँ याकूब अब्दुल रजाक मेमन को, जिसने मुंबई में बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के बाद शेयर बाजार भवन को उड़ा दिया था| उस विस्फोट में 257 निर्दोष भारतीय मारे गए थे| मेमन अपराधी साबित हो गया था| ऐसे हत्यारे पर प्रशांत भूषण को मांग करनी चाहिए थी कि उसपर निजामे मुस्तफा के मुताबिक सजा तामील की जाय| अर्थात उसको फ्लोरा फाउंटेन के चौराहे पर बांधकर, कोड़ों और ढेलों से मारा जाए| मगर वाह वकील साहब ! आप भोर के दो बजे सर्वोच्च न्यायालय का किवाड़ खुलवाकर मेमन की फांसी टलवाने में जुट गए| परन्तु जजों का विवेक जीवित था| नागपुर जेल में 30 जुलाई 2015 को उसे फंदे पर झुला दिया गया| इस पर प्रशांत भूषण जी की उक्ति थी: “भारतीय लोकतंत्र में आज का दिन अत्यधिक त्रासदीपूर्ण है|” (ANI पर इंटरव्यू तथा बिजनेस स्टैण्डर्ड की रपट)|
अब एक अहम प्रश्न|
नादान निर्भया का बलात्कार दिल्ली में (16 दिसंबर 2012 की रात) चलती बस में हुआ था, पर उसे न्याय मिला 20 मार्च 2020 को, बलात्कारियों को फांसी मिलने पर| माँ आशा देवी और पिता बद्रीनाथ सिंह आठ वर्षों तक पटियाला कोर्ट से हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक धूल फांकते रहे| तब किसी भी अदालत के किवाड़ रात ढले, चाँद उगे, क्यों नहीं खुलवाए गए?
किसी न्यायाधीश की गहरी नींद में खलल क्यों नहीं डाला गया ?
हत्यारे याकूब मेमन से तो कहीं अच्छे नागरिक थे ये दंपति ?
पुत्री तो मर ही चुकी थी| जनवादी अधिकारों के प्रबल प्रहरी प्रशांतजी इन सबके साक्षी रहे| पर मूक, निष्क्रिय|
संसद भवन को तोड़ने वाले अफजल गुरु (2011), ताज होटल, मुंबई, का हत्यारा पाकिस्तानी अजमल कसाब, इस्राइली दूतावास को उड़ा देनेवाला अहमद काजमी, एस.आर. जिलानी और न जाने कितने कातिलों को कानूनी सहायता अविरल, अनवरत उपलब्ध होती रही| जेलों में घरेलू सुविधाएँ मिलती रहीं| न्यायालय की गरिमा को मट्टी में मिलानेवाली अरुंधती राय को बचाने में प्रशांत भूषण ने जीजान से प्रयास किया था| मगर न्याय जीता और एक दिन के लिए उन्हें तिहाड़ जेल में डेरा डालना ही पड़ा| इन इस्लामी आतंकवादियों को 72 हूरें आखिर मिल ही गयीं, क्योंकि न्यायाधीश लोग कर्तव्यरत थे| सजा तामील हुई|
बस एक उल्लेख और|
शांतिभूषण जी मेरे परमप्रिय रहे| उन्होंने ही मेरे हीरो राजनारायण जी के वकील बनकर इलाहबाद हाईकोर्ट में रायबरेली के उस तानाशाह को गैरकानूनी प्रधानमंत्री सिद्ध करने में बड़ी मेहनत की थी| फिर मोरारजी देसाई काबीना की बैठक में प्रस्ताव पेशकर न्यायमंत्री शांतिभूषण जी ने हमारे बड़ौदा डायनामाईट केस की वापसी का निर्णय उच्चतम स्तर पर कराया| लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, एच.एम. पटेल, चरण सिंह, जगजीवन राम, प्रकाश सिंह बादल, सिकंदर बख्त आदि के समर्थन और सहमति से हमपर मुकदमा निरस्त हुआ| हम तिहाड़ जेल से (22 मार्च 1977 को) मुक्त हुए| वर्ना फांसी का फंदा तो सामने झूल ही रहा था|
शांति भूषण जी ने हमें दूसरा जीवन दिलवाया| आज मेरा दर्द उनके आत्मज के कारण बढ़ा है|