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सत्ताइस वर्ष बाद कविता की वापसी. अमेरिकी कवि लुइस ग्लिक को 2020 का नोबेल पुरस्कार. उनकी एक मार्मिक कविता, जिसका भाषा-संयम याद रखने लायक है:
|| एक फंतासी ||
० लुइस ग्लिक
मैं आपको कुछ बताती हूँ: हर दिन
लोग मर रहे हैं. और यह सिर्फ शुरुआत है.
हर दिन अंत्येष्टि-स्थलों में नयी विधवाएं जन्म लेती हैं,
नयी-नयी अनाथ. वे दोनों हाथ बाँध कर बैठती हैं,
नये जीवन के बारे में कुछ तय करने की सोचती हुईं.
फिर वे कब्रिस्तान जाती हैं, कुछ तो
पहली बार. उन्हें रोने से डर लगता है,
कभी रुलाई न आने से. फिर कोई उनकी तरफ झुकता है
उन्हें बताता है कि आगे क्या करना है, जिसका मतलब होता है
कुछ शब्द कहना, कभी
खुली हुई कब्र में मिट्टी डालना.
और उसके बाद सभी घर लौटते हैं,
जो अचानक मातमपुर्सी वालों से भर गया है.
विधवा सोफे पर बैठ जाती है, एकदम धीर-गंभीर,
लोग एक-एक कर उससे मिलने के लिए आगे आते हैं,
कभी उसका हाथ थामते हैं, कभी गले लगाते हैं,
उसके पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ होता है,
वह उन्हें शुक्रिया कहती है, आने के लिए शुक्रिया.
मन ही मन वह चाहती है कि वे चले जायें.
वह कब्रिस्तान में लौटना चाहती है,
बीमार के कमरे में, अस्पताल में. वह जानती है
कि यह संभव नहीं है. लेकिन वही उसकी अकेली उम्मीद है,
पीछे लौटने की इच्छा. बस थोड़ा सा पीछे,
बहुत पीछे विवाह और पहले चुंबन तक नहीं.
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०
Mangalesh Dabral