चे ग्वेरा की भारत यात्रा के दौरान ऑल इंडिया रेडिओ को दिया इंटरवयू
1 जुलाई 1959
" मैं एक कैथलिक होकर जन्मा, एक सोशलिस्ट (समाजवादी) हूं और बराबरी में और शोषक देशों से मुक्ति में भरोसा रखता हूं। मैंने लड़कपन के दिनों से भूख को देखा है, कष्ट, भयंकर ग़रीबी, बीमारी और बेरोज़गारी को भी। क्यूबा, विएतनाम और अफ्रीका में ये हालात रहे हैं, आज़ादी की लड़ाई लोगों की भूख से जन्म लेती है। मार्क्स-लेनिन के सिद्धांतों में उपयोगी पाठ (संदेश) हैं। ज़मीनी क्रांतिकारी मार्क्स के दिशा-निर्देशों को मानते हुए अपने संघर्षों का रास्ता खुद बनाते हैं "
केपी भानुमती को जब चे दिल्ली के अशोक होटल में आॅल इंडिया रेडियो के लिए उनका इंटरव्यू लेने पहुंचीं चे ने कहा, ‘‘आपके यहां गांधी हैं, दर्शन की एक पुरानी परंपरा है; हमारे लातिनी अमेरिका में दोनों नहीं हैं। इसलिए हमारी मन:स्थिति (माइंड-सेट) ही अलग ढंग से विकसित हुई है।’’
दिल्ली में सुजानसिंह पार्क के अपने घर में चे से मुलाकात के नोट्स और फोटो दिखाते हुए भानुमती ने मुझे आहत भाव से बताया कि प्रकाशक ने उनके कई अध्याय बेमुरव्वत होकर काट-छांट डाले।
भानुमती से बात करना दिलचस्प अनुभव है। वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, पर सक्रिय हैं। रेडियो के लिए उन्होंने हो ची मिन्ह, चाऊ एनलाई, जूलियस न्येरेरे जैसे नेताओं से लेकर गुन्नार मिर्डल, आंद्रे मालरो, अगाथा क्रिस्टी जैसी जाने कितनी शख्सियतों को इंटरव्यू किया। चे गेवारा उनमें प्रमुख थे। भानुमती के घर की दीवारों पर टंगी दर्जनों तस्वीरों में दो चे गेवारा की हैं। पहली जुलाई, 1959 की सुबह साढ़े आठ बजे भानुमती अशोक होटल के छठे माले पहुंचीं। चे गेवारा ने दरवाजा खुद खोला। अकेले थे। कोई सुरक्षाकर्मी तक नहीं। भानुमती के साथ ब्लिट्ज के संवाददाता राघवन और छायाकार पीएन शर्मा थे। राघवन भानुमती से मिन्नत कर इस शर्त पर साथ हो लिए थे कि इंजीनियर की जगह वे बातचीत की रेकार्डिंग कर देंगे और कोई सवाल नहीं पूछेंगे। भानुमती कहती हैं, वे संकोच के साथ मान गईं क्योंकि राघवन ने ही उन्हें चे के दौरे की सूचना दी थी। छायाकार शर्मा को गेवारा का फोटो लेने के लिए वॉयस आॅफ अमेरिका ने तैनात किया था, जिसका आॅल इंडिया रेडियो से प्रसारण का कोई तालमेल था। दिलचस्प बात यह है कि यहां के रेडियो को फोटो की दरकार नहीं थी, वाशिंगटन के रेडियो को थी!
बातचीत कोई आधा घंटा चली। ‘‘पर रेडियो पर प्रसारण मुश्किल से दो मिनट हुआ होगा।
‘न्यूजरील’ कार्यक्रम में कई घटनाएं समेटनी होती थीं। उसी में कहीं वह इंटरव्यू खप गया’’, भानुमती ने बताया। उसका टेप अब मौजूद नहीं है, क्योंकि ‘‘तब रेडियो में एक ही स्पूल (टेप की पुरानी चकरी) मिटा कर बार-बार इस्तेमाल करने की प्रथा थी।’’ लेकिन हमेशा की तरह चुनिंदा प्रश्नोत्तर उन्होंने लिखकर रख लिए। एक रोज क्यूबा के राजदूत उसकी प्रति लेने उनके घर आए। भानुमती ने खुशी- खुशी उन्हें चे से मुलाकात की दो तस्वीरें भी भेंट कर दीं।
भानुमती कहती हैं, चे से साक्षात्कार उनकी यादगार मुलाकात था। उनके शब्दों में: कोई फौजी वर्दी की तरफ ध्यान न देता तो कल्पना करना मुश्किल था कि वह शख्स कभी ‘गुरिल्ला’ रहा होगा। वकीलों या नेताओं की तरह चे तेज भी नहीं लगते थे। उनकी आवाज नम्र थी और लहजा किसी याजक की तरह भद्र। किसी परिजन की सी सहजता में, मगर बहुत सोचकर और लंबे अंतराल देकर बोलते थे, जैसे ज्योतिषी बोला करते हैं। पूरी मुलाकात के दौरान वे मोंटी-कारलो सिगार पीते रहे, जिसका डिब्बा मेज पर रखा था। बचपन से दमे के रोगी रहे जुझारू व्यक्ति में यह आदत देखकर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। हर सवाल को सुनते वक्त वे कश खींचते, जवाब देने से पहले राख झटक कर सिगार राखदानी पर ठहरा देते और माइक्रोफोन की ओर झुक जाते।
पहली जुलाई, 1959 की सुबह केपी भानुमती दिल्ली के अशोक होटल में चे गेवारा से मिलीं। शाम को उन्हें ऑल इंडिया रेडियो के “न्यूज़रील” कार्यक्रम में चे का इंटरव्यू प्रसारित करना था। उन्होंने सबसे पहले भारत आने का सबब पूछा।
चे ने कहा: “क्यूबा में बातीस्ता राज से आज़ादी के बाद मैं विएतनाम और दूसरे देशों की प्रत्यक्ष जानकारी हासिल करने के लिए निकला हूं, जिनका औपनिवेशिक शासन में दमन हुआ। भारत आपके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर आया हूं। मैं खुद चाहता था कि भारत में आज़ादी के बाद शुरू हुए विकास-कार्यों को नज़दीक से देखूं। लातिनी अमेरिका में हमने भी साम्राज्यवाद को बहुत झेला है और हमें बहुत नीचे से ऊपर उठना है।”
भानुमती ने पूछा- आप समाजवादी अर्थव्यवस्था और समाजवादी मनुष्य की बात करते हैं। इसे कुछ स्पष्ट करेंगे? इस पर गेवारा बोले: “हम अल्प-विकसित देशों को साम्राज्यवादी पराधीनता, कठपुतली हुकूमतों और शोषण के कुचक्र से बरी होना है। हम उपनिवेश या पर-निर्भर मुल्क रहे हैं, जहां कम विकास हुआ है या बेतरतीब विकास। भूख स्वाधीनता के संघर्ष के लिए श्रेष्ठ परिस्थितियां पैदा करती हैं। बाहरी ताक़त के गुलाम हुए बगैर भी आप समाजवादी मानस और समाजवादी अर्थव्यवस्था अर्जित कर सकते हैं। ऐसा न हो सका तो कोई अल्पविकसित देश कभी भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवस्था नहीं देख पाएगा।”
चे ने इस बातचीत में भारत का ख़ास ज़िक्र किया: “भारत ने लंबे संघर्ष के बाद आज़ादी हासिल की है। नेहरू के प्रति मेरे मन में बहुत आदर है। वे देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता लाएंगे और भारत एक ताक़तवर मुल्क साबित होगा।” उन्होंने आगे कहा, “हमें ऐसा समाज तैयार करना होगा जिसमें सभी लोग वैयक्तिक मानवीय आकांक्षाओं की सामूहिक चेतना का साझा करें। नव-उपनिवेशवाद दक्षिणी अमेरिका से शुरू हुआ और फिर अफ्रीका व एशिया में उसने जड़ें जमायीं। ज़रा देखिए, विएतनाम और कोरिया में क्या हो रहा है। एशिया के कुछ मुल्कों में नृशंसता भयावह रूप में है। साम्राज्यवादियों की साज़िश पर काबू पाने के लिए हम अल्पविकसित यानी तीसरी दुनिया के देशों को एकजुट होना पड़ेगा।”
विचारधारा की बात करते हुए भानुमती ने एक सवाल यह भी पूछा कि आप कम्युनिस्ट माने जाते हैं, कम्युनिस्ट (साम्यवादी) मताग्रह एक बहु-धर्मी समाज में कैसे स्वीकार किये जा सकते हैं?
इस पर चे का जवाब यह था: “मैं अपने को कम्युनिस्ट नहीं कहूंगा। मैं एक कैथलिक होकर जन्मा, एक सोशलिस्ट (समाजवादी) हूं और बराबरी में और शोषक देशों से मुक्ति में भरोसा रखता हूं। मैंने लड़कपन के दिनों से भूख को देखा है, कष्ट, भयंकर ग़रीबी, बीमारी और बेरोज़गारी को भी। क्यूबा, विएतनाम और अफ्रीका में ये हालात रहे हैं, आज़ादी की लड़ाई लोगों की भूख से जन्म लेती है। मार्क्स-लेनिन के सिद्धांतों में उपयोगी पाठ (संदेश) हैं। ज़मीनी क्रांतिकारी मार्क्स के दिशा-निर्देशों को मानते हुए अपने संघर्षों का रास्ता खुद बनाते हैं। भारत में गांधी जी के सिद्धांतों की अपनी वकत है, जिन (सिद्धांतों) की बदौलत आज़ादी हासिल हुई।”
क्या गांधी-नेहरू के प्रति चे की प्रशंसा और आदर का भाव शिष्टाचार के नाते था? या यह कूटनीति थी?
मुझे लगता है, भारत में चे ने खुले नज़रिये से एक अजनबी- मगर जानदार और आकर्षक- विचार को समझने की कोशिश की। गांधी जी का ज़िक्र वे छोड़ सकते थे, जिनके बारे में उनसे पूछा नहीं गया था। वे सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तौर-तरीक़ों पर टीका कर सकते थे। लेकिन उन्होंने हवाना लौट कर जो रिपोर्ट पेश की, उसमें भी साफ़ लिखा कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह से भारत ने आज़ादी हासिल की और जन-असंतोष के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेज़ों को मुल्क छोड़ने के लिए बाध्य किया।
चे के उस नज़रिये का संकेत उनके कलकत्ता के प्रवास में भी देखा जा सकता है। वे किन्हीं कृष्ण का ज़िक्र करते हैं, जिन्होंने महाविनाश के शस्त्रों के मामले में उनकी आंखें खोलीं। अपनी रिपोर्ट में चे लिखते हैं: “वहीं (कलकत्ते में) कृष्ण नाम के एक विद्वान से मुलाक़ात का मौक़ा मिला। वह एक ऐसा चेहरा था, जो हमारी आज की दुनिया से दूर लगता था। उस निष्कपटता और विनयशीलता के साथ उन्होंने हमसे लंबी बात की, जिसके लिए यह मुल्क जाना जाता है। उन्होंने दुनिया की समूची तकनीकी शक्ति और सामर्थ्य को आणविक ऊर्जा के शांतिप्रिय उपयोग में लगाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए अंतरराष्ट्रीय बहसों की उस राजनीति की भरपूर निंदा की, जो आणविक हथियारों की ज़खीरेबाज़ी को समर्पित है।”
इस संवाद के प्रभाव के वशीभूत चे ने आगे लिखा, “भारत में युद्ध नामक शब्द वहां के जन-मानस की आत्मा से इतना दूर है कि वह स्वतंत्रता आंदोलन के तनावपूर्ण दौर में भी उसके मन पर नहीं छाया।”
कलकत्ता के उस मनीषी का ज़िक्र चे गेवारा ने दो महीने बाद हवाना में फिर किया। 8 सितंबर को सफ़र से लौटने के ठीक एक घंटे बाद, पत्रकारों से बातचीत करते हुए।
कलकत्ता के अख़बारों में सिर्फ हिंदुस्तान स्टैंडर्ड में एक रोज़ (12 जुलाई) ख़बर नहीं, पर चे की तस्वीर छपी: कलकत्ता के अगरपाड़ा के पटसन कारखाने में 'सदाशय दौरे' (गुडविल मिशन) पर क्यूबा से आये अर्नेस्तो गेवाने (अख़बार में प्रूफ की भूल)। पांचवें पृष्ठ पर, कारखाने के दौरे के दो दिन बाद।
उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (तब पार्टी एक थी) का बांग्ला दैनिक स्वाधीनता वहां से निकलता था। लगा उसमें चे के कलकत्ता दौरे का भरपूर ब्योरा होगा। मेरे आग्रह पर एक वरिष्ठ प्रतिबद्ध लेखक ने जुलाई 1959 के अंकों के साथ स्वाधीनता के आगे-पीछे के अंक देख डाले। पार्टी के अख़बार ने क्यूबा क्रांति की ख़बरें भले बढ़-चढ़ कर छापी हों, गेवारा की यात्रा उसने पूरी तरह गोल कर दी। जबकि चे की यात्रा को पार्टी का अख़बार तो बढ़-चढ़ कर प्रचारित कर सकता था। यह बेरुखी क्यों रही, कोई नहीं जानता। वह छुपी यात्रा नहीं थी, दूसरे अख़बार में छपी तस्वीर से यह आप जाहिर है।
यह ज़रूर है कि चे कभी कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे नहीं जुड़े। वे रूसी साम्यवाद के आलोचक थे। उसे उन्होंने रूसी उपनिवेशवाद की संज्ञा दी थी। उन्हें इस पर एतराज़ था कि कोई साम्यवादी देश तीसरी दुनिया के अविकसित देशों से हथियारों और बाक़ी सहयोग के लिए मुनाफा कैसे कमा सकता है। बाद में चे ने माओ की नीतियों की बहुत तारीफ़ की। यह कहते हुए कि क्यूबा को अपना साम्यवाद खुद तलाशना होगा। 1965 में अल्जीरिया में एक खुली सभा में चे ने रूसी साम्यवाद की आलोचना की। क्यूबा लौटने पर उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी।
मगर भारत में पांच लोगों का प्रतिनिधिमंडल चे के नेतृत्व में क्यूबा क्रांति का दूत बन कर आया था। क्या यहां पार्टी का कोई नेता उनसे नहीं मिला? क्यूबा की क्रांति के बाद उसके किसी नायक ने पहली बार भारत आने पर कोई स्वागत या अभिनंदन हुआ? पार्टी के अख़बार में ही नहीं, चे की अपनी रिपोर्ट में भारत के दस दिन के प्रवास के दौरान किसी साम्यवादी नेता से मुलाक़ात का हवाला नहीं है। क्या पार्टी को उनसे दूर रहने का इशारा था? उस बेरुखी का ही नतीजा है कि चे की भारत यात्रा कोई पचास साल जनमानस की स्मृति से पूरी तरह ग़ायब रही। आगे जाकर भारत में उन्हें नवाजने वाले साम्यवादियों में भी ...