न्यूज़ चैनलों पर पराली प्रदूषण का सालाना सियापा चालू हो चुका है । नेता पैनलिस्ट वार पलटवार कर रहे हैं। दो-तीन महीने यह हंगामा चलेगा, और फिर अगले साल तक हम इसे भूल जाएंगे ।
यदि कोई समस्या हल नहीं हो रही है तो इसका मतलब है हम ताले को गलत चाबी से खोलने की कोशिश कर रहे हैं !
पंजाब हरियाणा के किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए हम बरसों से पुलिस प्रशासन , अदालत, सियासी बातचीत जैसे तमाम औजार इस्तेमाल कर रहे हैं पर नतीजा सिफर है। यह समस्या असल में इंजीनियरिंग की है। पराली निकालना किसान के लिए नुकसान का सौदा है । आप कितने ही कानून बना लें, समझाइश दें ,पर खेती में इतना मुनाफा ही नहीं है कि किसान पराली निकालने की लागत बर्दाश्त कर पाए। किसान को सब्सिडी देने बात होती है मगर यह फिर एक गलत औजार है जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही में उलझ कर रह जायेगा ।
असल में हमें ऐसी मशीनें चाहिए जो कम लागत में पराली निकाल सकें और उसके बाद इस पराली का इस्तेमाल कोई ऐसा प्रोडक्ट बनाने में करें जो पराली को फायदेमंद बना दे।
दुनिया भर में बायोवेस्ट को लेकर कई प्रयोग हो रहे हैं । कई कंपनियां बायो वेस्ट के इस्तेमाल से ईंधन, दोना- पत्तल,फर्नीचर बनाने के प्रयोग कर रही हैं । टेक्नोलॉजी कभी ऐसे चमत्कार दिखाती है कि किसी प्रोसेस का बाय प्रोडक्ट उसके मुख्य प्रोडक्ट से ज्यादा फायदेमंद हो जाता है । ऐसा कुछ पराली के साथ क्यों नहीं किया जा सकता ।
पर भारत की इंजीनियरिंग बिरादरी फिलहाल ऐसी कारें बनाने में व्यस्त है जहां आपको खिड़की का कांच बंद करने के लिए हाथ उठाने की भी जहमत उठाना न पड़े । वैसे घर बना रहे हैं जिनके बाथरूम में फर्श पर विशालकाय टीवी लगे हों । हमारे इंजीनियर किसानों , मजदूरों या पर्यावरण जैसी तमाम चुनौतियों से बेखबर हैं । आईआईटी और बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले टॉपर्स बैंकों के इन्वेस्टमेंट मैनेजर बन जाते हैं जहां वे धनकुबेरों को शेयर बाज़ार के सट्टे के गुर सिखाते हैं । नए इंजीनियर स्टार्टअप के नाम जो 'अविष्कार' कर रहे हैं , उन्हें ध्यान से देखिए उनमें से ज्यादातर स्टार्टअप असल में कस्टमर और सर्विस प्रोवाइडर को जोड़ने वाला एक कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर है जिसे प्लेटफार्म बिजनेस कहा जाता है । बेशक इसकी भी अपनी उपयोगिता है पर किसी को तो मशीनें बनानी होगी।
अस्सी के दशक में भारत में प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज खुलना शुरू हुए । तब से अब तक इन कॉलेजों ने लाखों इंजीनियर पैदा किये पर इनमें से सचमुच इंजीनियरिंग कितनों ने की ? आवारा पूंजी ने तुरत फुरत पैसा बनाने के रास्ते खोल दिए । फैक्ट्रियों में पसीना कौन बहाए। प्रयोगशालाओं में दस बारह घन्टे आंखें फोड़ कर एक महीने में जो पैसा मिलेगा उससे कहीं अधिक पैसा घर बैठे प्लाट खरीदने बेचने में मिले तो कोई इंजीनियरिंग क्यों करे ? कई इंजीनियर जमीनों की दलाली में भी लगे हुए हैं ।
बात सिर्फ इच्छा की नहीं काबिलियत की भी है । ये जिन इंजीनियरिंग कॉलेजों से पढ़े हैं वहां की प्रयोगशालाओं में कभी कोई मेटीरियल टेस्ट कराने के बहाने जाइए , आपको पता चलेगा कि वहां के प्रोफेसर और लैबोरेट्री इक्विपमेंट्स किस हाल में हैं। सीमेंट कंक्रीट की कंप्रेसिव स्ट्रैंथ जांचने की मामूली रिपोर्ट लेने के लिए आपको पसीना आ जाएगा।
यही हाल रिसर्च का भी है । इंजीनियरिंग समेत तमाम विषयों में रिसर्च के नाम पर रद्दी कागजों की जिल्दें हर बरस विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय में इकट्ठी होती जाती हैं । बाजार या समाज तो दूर इन रिसर्च ग्रंथों को करने कराने वाले भी इन्हें दुबारा नहीं पढ़ते । अब तो लगता है एक पीएचडी इस बात पर होना चाहिए कि पिछले 20 -30 सालों में कितनी रिसर्च है जिनसे समाज, देश को कोई फायदा हुआ ! और कुछ समय के लिए सभी तरह की पीएचडी पर पर रोक लगा देनी चाहिए ! कम से कम यूनिवर्सिटी को मिलने वाली ग्रांट का पैसा बचेगा।
मेरे मित्र इंजीनियर है । उन्होंने बायो वेस्ट का इस्तेमाल करने के लिए एक जर्मनी की कंपनी को संपर्क किया । कंपनी को पहले ही कुछ भारतीय इंजीनियर स्टार्टअप के नाम पर चूना लगाकर रफूचक्कर हो चुके थे। कंपनी ने कहा हम भारत के साथ कोई कोलेबरेशन फिलहाल नहीं करना चाहते।
राजनीति और नेताओं को गरियाते हुए हम भूल गए हैं कि समाज के दूसरे लोगों की भी कोई जिम्मेदारी हो सकती है , और कानून-व्यवस्था का मामला बनने से पहले हर समस्या असल मे सामाजिक , सांस्कृतिक आर्थिक या तकनीकी समस्या होती है। पराली पर मीडिया में चल रही बहस में नेताओं को नहीं इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को आगे आना चाहिए ।
और हां ,पराली जलाने पर लोगों को जेल भेजना वैसा ही है जैसा कैंसर के रोगी को पेन किलर देकर इलाज करना ।
संजय वर्मा